Monday, March 26, 2018

सबसे अच्छा कौन ?

एक दिन शहंशाह चांदनी महल में अपने नवरत्नों के साथ बैठे हुए थे। उन्हने पूछा :फूल किसका अच्छा ? दूध किसका अच्छा ? मिठास किसकी अच्छी? पत्ता किसका अच्छा और राजा कौन अच्छा ?
       किसी ने कहा की गुलाब का फूल सबसे बढ़िया होता है तो किसी ने कहा कमल का। किसी की नजर में गाय का दूध अच्छा था तो किसी के ख़याल से बकरी का। कुछ गन्ने की मिठास को पसंद करते थे तो कुछ को शहद सबसे मीठा लगता था। किसी ने केले के पत्ते का गुणगान किया तो किसी ने नीम के पत्ते का। राजा के बारे में भी लोगों की अलग अलग राय थी। एक दो ने तो शहंशाह अकबर की महिमा का ही बखान कर डाला।
      शहंशाह को ये सब जबाब अच्छे लगे। लेकिन बीरबल अभी तक चुप थे। शहंशाह ने उसने राय देने के लिए कहा। बीरबल ने उत्तर दिया : 'आलमपनाह  ! फूल कपास का उत्तम होता है। उसी से हम सबको तन ढकने के लिए कपड़ा मिलता है। दूध माँ का अच्छा होता है। उसे पीकर बच्चा फलता - फूलता है। मिठास जबान की अच्छा होती है। पत्ता पान का सबसे बढ़िया होता है। उसे पेश करने पर दुश्मन का भी दोस्त बना लिया जाता है। पान का बीड़ा उठाने पर हर आदमी ईमानदारी से अपना बचन निभाता है। और आलमपनाह , सबसे अच्छे राजा इंद्र है। इंद्र की कृपा से ही आकाश से अमृत बरसता है। '
      सभी लोग बीरबल की योग्यता का लोहा मान गए। शहंशाह तो बहुत ही खुश हुए। 
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Monday, March 5, 2018

क्या खोया क्या पाया ?

आज प्रातः भी जब युधिष्ठिर टहलने निकले, वही जुआरी रहा में मिला। उसने आदर से प्रणाम किया।   
      'क्या खोया क्या पाया ? युधिष्ठिर ने पूछा।
     'आरंभ में हारता रहा महाराज, फिर जितने लगा। कुल साठ  मुद्रा कमा- कर लाया हूँ। ' उसने कहा। 
   रोज रातभर जुआ खेलकर लौटते समय प्रात : उसकी भेंट धर्मराज युधिष्ठिर से हो जाती थी। कभी जुआरी उदास मिलता, कभी प्रसन्न। उस जमाने में जुआ खेलना आम रिवाज था। हार -जीत को भाग्य का खेल मानकर लोग बनते-बिगड़ते थे। 'पड़ पासा पो बारह, या सतरह या  आठारह; स्वयं  युधिष्ठिर को इसका शोक था। 
    एक दिन जब वही जुआरी हारकर लौट रहा था और उदास था, तब उसने राह में युधिष्ठिर  से पूछा : 'महाराज, आप बड़े चिंतक और नीतिवान हैं। बताइऐ, इस खेल में कैसे कोई लगातार जीत सकता हैं ?
    'सत्य और ईमानदारी से प्रयत्न करते रहो, अवश्य जीतोगे। केवल जुए में ही नहीं, सभी खेलो में।' युधिष्ठिर ने कहा।  
    मैं नहीं मानता, महाराज ! अन्य खेलो से जुआ अलग है। इसमें बेईमानी ,धोखा और झूठी चालें भरी है। इसमें तो वही जीतेगा जो परले सिरे का बेईमान हो। जुआरी बोला।  
   और उस दिन जब कौरवो  ने युधिष्ठिर को जुआ खेलने की चुनौती दी, तब यह जानते हुए भी कि कौरव झूठे पासे फेकेंगे, बेईमानी करेंगे, धर्मराज युधिष्ठिर तैयार हो गए ; मानो वह जुआरी से कहीं अपनी बात की परीक्षा लेना चाहते हो। 
    कौरव -पांडव के बीच होने वाले इस जुए को देखने के लिए बड़ी भीड़ पहुंची। उसमें वह जुआरी भी था। खेल में वही हुआ। पांडव अपना सब कुछ खो बैठे राज -पाट, भाई, पत्नी।
   युधिष्ठिर अपने भाईयो के साथ उदास सिर लटकाए बैठे थे। वह  आया और प्रणाम करके बोला ;महाराज मैने कहा था न इस दुस्ट खेल में ऐसा जुआरी आया और प्रणाम करके बोला : 'महाराज मैने कहा था न, इस दुष्ट खेल में ऐसा होता ही है। ईमानदारी से इसमें विजय पाना कठिन हैं।   
युधिष्ठिर कुछ नहीं बोले। उसकी सुनते रहे। 
    पांडवों को वनवास हुआ। महाभारत का युद्ध हुआ। कौरव मारे गए। हस्तिनापुर का राज्य फिर पांडवो को मिला। युधिष्ठिर फिर राजा बने। उस दिन वर्षो बाद वह फिर उसी पुराने मार्गः पर टहलने निकले। उन्हें राह के किनारे बैठा एक फटेहाल वैक्ति मिला। वह युधिष्ठिर को देख आदर से खड़ा हो गया। युधिष्ठिर ने पहचाना, वही जुआरी था। 
    'जुए में झूठ और बेईमानी की राह पर चलते हुए भी तुम यही पहुंचे ?'          सब कुछ लूट गया। मेरा जुए में, महाराज।' जुआरी बोला; कोई चतुराई काम नहीं आई। 
     राज -पाट मिला पर बंधु-बांधब चले गए। जुए में बात ही कुछ ऐसी है। 
मुझे भी क्या मिला ? मुर्ख है हम दोनों जो आपने गुणो की परीक्षा इतने बुरे कामो में करते रहे। यदि जीवन के दूसरे मामलों में इन गुणों को परखते तो भविस्य दूसरा होता। 
युधिष्ठिर ने जुआरी को कुछ मुद्राएं दी और कहा ; जाओ किसी अच्छे काम में अपनी कुशलता का परिचय दो और रोटी चलाओ। 
वह फटेहाल वैक्ति राजा को प्रणाम कर चला गया। 

                           -:शरद जोशी :-
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