आज प्रातः भी जब युधिष्ठिर टहलने निकले, वही जुआरी रहा में मिला। उसने आदर से प्रणाम किया।
'क्या खोया क्या पाया ? युधिष्ठिर ने पूछा।
'आरंभ में हारता रहा महाराज, फिर जितने लगा। कुल साठ मुद्रा कमा- कर लाया हूँ। ' उसने कहा।
रोज रातभर जुआ खेलकर लौटते समय प्रात : उसकी भेंट धर्मराज युधिष्ठिर से हो जाती थी। कभी जुआरी उदास मिलता, कभी प्रसन्न। उस जमाने में जुआ खेलना आम रिवाज था। हार -जीत को भाग्य का खेल मानकर लोग बनते-बिगड़ते थे। 'पड़ पासा पो बारह, या सतरह या आठारह; स्वयं युधिष्ठिर को इसका शोक था।
एक दिन जब वही जुआरी हारकर लौट रहा था और उदास था, तब उसने राह में युधिष्ठिर से पूछा : 'महाराज, आप बड़े चिंतक और नीतिवान हैं। बताइऐ, इस खेल में कैसे कोई लगातार जीत सकता हैं ?
मैं नहीं मानता, महाराज ! अन्य खेलो से जुआ अलग है। इसमें बेईमानी ,धोखा और झूठी चालें भरी है। इसमें तो वही जीतेगा जो परले सिरे का बेईमान हो। जुआरी बोला।
और उस दिन जब कौरवो ने युधिष्ठिर को जुआ खेलने की चुनौती दी, तब यह जानते हुए भी कि कौरव झूठे पासे फेकेंगे, बेईमानी करेंगे, धर्मराज युधिष्ठिर तैयार हो गए ; मानो वह जुआरी से कहीं अपनी बात की परीक्षा लेना चाहते हो।
कौरव -पांडव के बीच होने वाले इस जुए को देखने के लिए बड़ी भीड़ पहुंची। उसमें वह जुआरी भी था। खेल में वही हुआ। पांडव अपना सब कुछ खो बैठे राज -पाट, भाई, पत्नी।
युधिष्ठिर अपने भाईयो के साथ उदास सिर लटकाए बैठे थे। वह आया और प्रणाम करके बोला ;महाराज मैने कहा था न इस दुस्ट खेल में ऐसा जुआरी आया और प्रणाम करके बोला : 'महाराज मैने कहा था न, इस दुष्ट खेल में ऐसा होता ही है। ईमानदारी से इसमें विजय पाना कठिन हैं।
युधिष्ठिर कुछ नहीं बोले। उसकी सुनते रहे।
पांडवों को वनवास हुआ। महाभारत का युद्ध हुआ। कौरव मारे गए। हस्तिनापुर का राज्य फिर पांडवो को मिला। युधिष्ठिर फिर राजा बने। उस दिन वर्षो बाद वह फिर उसी पुराने मार्गः पर टहलने निकले। उन्हें राह के किनारे बैठा एक फटेहाल वैक्ति मिला। वह युधिष्ठिर को देख आदर से खड़ा हो गया। युधिष्ठिर ने पहचाना, वही जुआरी था।
'जुए में झूठ और बेईमानी की राह पर चलते हुए भी तुम यही पहुंचे ?' सब कुछ लूट गया। मेरा जुए में, महाराज।' जुआरी बोला; कोई चतुराई काम नहीं आई।
राज -पाट मिला पर बंधु-बांधब चले गए। जुए में बात ही कुछ ऐसी है।
मुझे भी क्या मिला ? मुर्ख है हम दोनों जो आपने गुणो की परीक्षा इतने बुरे कामो में करते रहे। यदि जीवन के दूसरे मामलों में इन गुणों को परखते तो भविस्य दूसरा होता।
युधिष्ठिर ने जुआरी को कुछ मुद्राएं दी और कहा ; जाओ किसी अच्छे काम में अपनी कुशलता का परिचय दो और रोटी चलाओ।
वह फटेहाल वैक्ति राजा को प्रणाम कर चला गया।
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Ok bro
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Nice Story sir thank you for share it.
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